Thursday, October 13, 2016

Guru Nishtha

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ऐसी हो गुरु में निष्ठा 
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प्राचीनकाल में गोदावरी नदी के किनारे वेदधर्म मुनि के आश्रम में उनके शिष्य वेद-शास्त्रादि का अध्ययन करते थे। 
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एक दिन गुरु ने अपने शिष्यों की गुरुभक्ति की परीक्षा लेने का विचार किया।
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सत्शिष्यों में गुरु के प्रति इतनी अटूट श्रद्धा होती है कि उस श्रद्धा को नापने के लिए गुरुओं को कभी-कभी योगबल का भी उपयोग करना पड़ता है। 
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वेदधर्म मुनि ने शिष्यों से कहाः "हे शिष्यो ! अब प्रारब्धवश मुझे कोढ़ निकलेगा, 
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मैं अंधा हो जाऊँगा इसलिए काशी में जाकर रहूँगा। 
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है कोई हरि का लाल, जो मेरे साथ रहकर सेवा करने के लिए तैयार हो ?" 
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शिष्य पहले तो कहा करते थेः ʹगुरुदेव ! आपके चरणों में हमारा जीवन न्योछावर हो जाय मेरे प्रभु !ʹअब सब चुप हो गये। 
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उनमें संदीपक नाम का शिष्य खूब गुरु सेवापरायण, गुरुभक्त था। 
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उसने कहाः "गुरुदेव ! यह दास आपकी सेवा में रहेगा।" 
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गुरुदेवः "इक्कीस वर्ष तक सेवा के लिए रहना होगा।"
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संदीपकः "इक्कीस वर्ष तो क्या मेरा पूरा जीवन ही अर्पित है। गुरुसेवा में ही इस जीवन की सार्थकता है।" 
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वेदधर्म मुनि एवं संदीपक काशी में मणिकर्णिका घाट से कुछ दूर रहने लगे।
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कुछ दिन बाद गुरु के पूरे शरीर में कोढ़ निकला और अंधत्व भी आ गया। शरीर कुरूप और स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया। 
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संदीपक के मन में लेशमात्र भी क्षोभ नहीं हुआ। वह दिन रात गुरु जी की सेवा में तत्पर रहने लगा। 
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वह कोढ़ के घावों को धोता, साफ, करता, दवाई लगाता, गुरु को नहलाता, कपड़े धोता, आँगन बुहारता, भिक्षा माँगकर लाता और गुरुजी को भोजन कराता।
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गुरुजी गाली देते, डाँटते, तमाचा मार देते, डंडे से मारपीट करते और विविध प्रकार से परीक्षा लेते.
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किंतु संदीपक की गुरुसेवा में तत्परता व गुरु के प्रति भक्तिभाव अधिकाधिक गहरा और प्रगाढ़ होता गया। 
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काशी के अधिष्ठाता देव भगवान विश्वनाथ संदीपक के समक्ष प्रकट हो गये और बोलेः 
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"तेरी गुरुभक्ति एवं गुरुसेवा देखकर हम प्रसन्न हैं। 
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जो गुरु की सेवा करता है वह मानो मेरी ही सेवा करता है। जो गुरु को संतुष्ट करता है वह मुझे ही संतुष्ट करता है। 
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बेटा ! कुछ वरदान माँग ले।" संदीपक गुरु से आज्ञा लेने गया और बोलाः 
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"शिवजी वरदान देना चाहते हैं आप आज्ञा दें तो वरदान माँग लूँ कि आपका रोग एवं अंधेपन का प्रारब्ध समाप्त हो जाय।" 
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गुरु ने डाँटाः "वरदान इसलिए माँगता है कि मैं अच्छा हो जाऊँ और सेवा से तेरी जान छूटे ! 
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अरे मूर्ख ! मेरा कर्म कभी-न-कभी तो मुझे भोगना ही पड़ेगा।" 
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संदीपक ने शिवजी को वरदान के लिए मना कर दिया।
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शिवजी आश्चर्यचकित हो गये कि कैसा निष्ठावान शिष्य है ! 
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शिवजी गये विष्णुलोक में और भगवान विष्णु से सारा वृत्तान्त कहा। 
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विष्णु भी संतुष्ट हो संदीपक के पास वरदान देने प्रकटे।
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संदीपक ने कहाः "प्रभु ! मुझे कुछ नहीं चाहिए।
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"भगवान ने आग्रह किया तो बोलाः "आप मुझे यही वरदान दें कि गुरु में मेरी अटल श्रद्धा बनी रहे। 
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गुरुदेव की सेवा में निरंतर प्रीति रहे, गुरुचरणों में दिन प्रतिदिन भक्ति दृढ़ होती रहे।
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"भगवान विष्णु ने संदीपक को गले लगा लिया। 
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संदीपक ने जाकर देखा तो वेदधर्म मुनि स्वस्थ बैठे थे। न कोढ़, न कोई अँधापन !
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शिवस्वरूप सदगुरु ने संदीपक को अपनी तात्त्विक दृष्टि एवं उपदेश से पूर्णत्व में प्रतिष्ठित कर दिया। 
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वे बोलेः "वत्स ! धन्य है तेरी निष्ठा और सेवा ! 
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जो इस प्रसंग को पढ़ेंगे, सुनेंगे, सुनायेंगे, वे महाभाग मोक्ष-पथ में अडिग हो जायेंगे। 
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पुत्र ! तुम धन्य हो ! तुम सच्चिदानंद स्वरूप हो।" 
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गुरु के संतोष से संदीपक गुरु-तत्त्व में जग गया, गुरुस्वरूप हो गया। 
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अपनी श्रद्धा को कभी भी, कैसी भी परिस्थिति में सदगुरु पर से तनिक भी कम नहीं करना चाहिए। 
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वे परीक्षा लेने के लिए कैसी भी लीला कर सकते हैं। गुरु आत्मा में अचल होते हैं, स्वरूप में अचल होते हैं। 
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जो हमको संसार-सागर से तारकर परमात्मा में मिला दें, जिनका एक हाथ परमात्मा में हो और दूसरा हाथ जीव की परिस्थितियों में हो, 
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उऩ महापुरुषों का नाम सदगुरु है। 
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सदगुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट। 
मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।। 
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गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाये। 
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।।
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